हल्के-फुल्के नहीं रहे, पिछले कुछ सालों में ज़्यादा परिपक्व हुए हैं भारत-अमेरिका रक्षा व्यापार संबंध

इससे छह दिन पहले चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (Chinese People’s Liberation Army) ने दोनों देशों की सीमा पर कई स्थानों पर भारतीय क्षेत्रों पर हमले किए थे. नेहरू (Nehru) ने इन चुनौतियों से मुक़ाबला करने के लिए अमेरिकी मदद की मांग की थी (भारत को इस लड़ाई में चीन के हाथों हार का सामना करना पड़ा). केनेडी ने तत्काल भारत को उपकृत किया. जैसा कि इतिहासकार श्रीनाथ राघवन ने लिखा है, “भारतीय आग्रह के चार दिन के भीतर ही हल्के अमेरिकी हथियारों से लदा पहला जहाज़ कलकत्ता में उतरा. अगले कुछ दिनों में कम से कम 41 जहाज़ लगभग 40 हज़ार टन उपकरणों के साथ भारत में उतरे”.


यह मौक़ा भारत-अमेरिका के बीच नज़दीकी रक्षा संबंध (Defence Relations) क़ायम करने का रास्ता खोल सकता था अगर भारत ने विचारधारा (गुटनिरपेक्षता) के प्रति अड़ियल और बहु प्रचारित ज़िद नहीं पकड़ी होती, भारत के प्रति अमेरिका (America) की उपेक्षा (गुटनिरपेक्षता के कारण ही) और पाकिस्तान का विश्वासघात (तीन साल बाद ही उसके साथ लड़ाई छिड़ी) रास्ते में नहीं आता.





अमेरिका-विरोधी रवैये से मुक्ति पाने में भारत को लगे चार दशक



एक मज़बूत भारत के प्रति अमेरिकी प्रतिबद्धता वास्तविक रूप से अच्छा है यह समझने और भारतीय रणनीति की दिशा तय करनेवालों के स्वाभाविक अमेरिका-विरोधी रवैये से मुक्ति पाने में चार दशक लग गए.


नई सदी में अमेरिका रूस को चुनौती देते हुए भारत का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सैनिक पार्टनर बनकर उभरा है. उसने भारत को नौसैनिक ख़ुफ़िया विमान बेचे हैं जो उसको चीनी पनडुब्बियों से घर के पीछे मंडराते ख़तरे से निपटने में मदद करता है, उसने भारत को टर्बोप्रॉप सैनिक मालवाही विमान और हमले में काम आनेवाले हेलिकाप्टर, उन्नत नौसैनिक बन्दूकें और कई अन्य हथियार बेचने की अनुमति दी है.


'गठबंधन न होने के बावजूद भारत की स्थिति नाटो पार्टनर जैसी'


एक प्रसिद्ध अमेरिकी थिंक-टैंक से जुड़े एक विद्वान के शब्दों में, “भारत आज एक ऐसी स्थिति में पहुंच गया है कि गठबंधन नहीं होने के बावजूद उसकी वास्तविक स्थिति नाटो के एक पार्टनर जैसी बन गयी है”.सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भारत-अमेरिका रक्षा संबंधों का, जिसमें हथियारों का व्यापार भी शामिल है, कई राजनीतिक और आर्थिक असहमतियों के बावजूद फलना-फूलना जारी है.


हम यहां प्रमुख आंकड़ों के माध्यम से भारत-अमेरिका सैनिक व्यापार संबंध के बारे में बताने जा रहे हैं.(आंकड़ों के स्रोतों और इस आलेख के लिए प्रयुक्त तरीक़ों का ज़िक्र संबंधित नोट्स में किया गया है)


अमरीका दो विभिन्न तरीक़ों से दूसरे देशों को हथियार बेचता है.पहला है विदेशी सैनिक बिक्री (एफएमएस)- यह एक ऐसा तरीक़ा है जिसमें अमेरिकी सरकार ख़ुद ही अमरीका के सैनिक ठेकेदारों से हथियार ख़रीदती है और फिर इस पर मार्क-अप लागत लगाने (जो कि भारत के संदर्भ में क़ीमत का 3.8% है) के बाद दूसरे देशों को बेचता है.


भारत के लिए FMS रूट पिछले वर्षों में रहा काफी उपयोगी


यह कहा जाता है कि भारत की रक्षा ख़रीद जिस तरह से कठोर बनी रही है, उसमें एफएमएस रूट पिछले वर्षों में काफ़ी उपयोगी रहा है, हालांकि, जैसा कि आईडीएसए के लक्ष्मण बेहरा बताते हैं, इसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी हथियारों के अंतिम उपयोगकर्ता की कष्टसाध्य निगरानी रही है जो सरकार-से-सरकार को होनेवाली बिक्री के साथ जुड़ा है.


वर्ष 2003 और 2017 के बीच अमरीका ने एफएमएस रूट से भारत को कुल लगभग $9.2 अरब के सैनिक साजो-सामान बेचने का समझौता किया और इस बारे में सबसे बड़ा समझौता 2011 में हुआ जो $4.5 अरब का था.


अमेरिकी विदेश विभाग के 2019 के बयान के अनुसार, एफएमएस रूट का प्रयोग कर भारत को एमएच-60R सीहॉक हेलिकाप्टर्ज़ ($2.6 अरब), अपाची हेलिकॉप्टर्स ($2.3 अरब), पी-8I समुद्री गश्ती विमान ($3 अरब) और एम777 होविट्जर्स ($7370 लाख) बेचे गए”.


यह देखने के लिए कि यह बढ़ोतरी कैसी रही है, यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि 1950 और 1999 के बीच भारत-अमेरिका के बीच कुल $850 लाख मूल्य के एफएमएस समझौते हुए. यह इस बात को साबित करता है कि 1962 के युद्ध के समय दोनों देशों के बीच जो संक्षिप्त संपर्क हुआ उसके बाद रक्षा व्यापार कितना कमज़ोर था.


अमेरिका को रक्षा संबंधों में शामिल करना भारत की रणनीति का व्यवहारिक कदम


पाकिस्तान के साथ 1965 की लड़ाई के बाद अमेरिका (और कुछ पश्चिमी देश) ने भारत को हथियार बेचने से मना कर दिया. ग़ौर करनेवाली बात है कि शीत युद्ध के दौरान पाकिस्तान, अमेरिका का प्रथम पंक्ति का मित्र देश था जो अफ़ग़ानिस्तान पर रूसी सेना के क़ब्ज़े के दौरान उसके लिए भौगोलिक स्तर पर फ़ायदेमंद साबित हुआ. इस दृष्टि से सोवियत संघ ने ख़ुद ही कृपा दिखाई और अपने रक्षा उपकरणों पर भारत को छूट देकर “राजनीतिक क़ीमत” अदा की.


शीत युद्ध के समाप्त होने और सोवियत संघ के विघटने के साथ ही 1991 में भारत को जब सैनिक साजो-सामान ख़रीदने की ज़रूरत पड़ी तो उसके सामने बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई. नई सदी की शुरुआत से रक्षा व्यापार के क्षेत्र में अमेरिका भारत के लिए स्वाभाविक पसंद बनकर उभरा. हालांकि, रूस भारत का प्रमुख सैनिक पार्टनर बना रहा.


भारत के रक्षा संबंधों में विस्तार कर उसमें अमेरिका को शामिल करना निस्सन्देह भारत की रणनीति का एक व्यावहारिक कदम था जिसकी शुरुआत अटल बिहारी वाजपेयी की अमेरिका की ओर हाथ बढ़ाने से हुई.


हालांकि जटिल रहा है अमेरिकी हथियार खरीदने का तरीका


उभरते भू-रणनीतिक वास्तविकताओं ने भारतीय पहल को मजबूत बनाया. अमेरिका में सितम्बर 2001 को हुए हमले और चीन की महत्तवाकांक्षा के बारे में बढ़ती जागरूकता को बुश प्रशासन ने जिस तरह से देखा, इन सभी बातों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका इसमें अदा की.


भारत-अमेरिका रक्षा व्यापार संबंध का अंत्य परिणाम काफ़ी शानदार रहा. वर्ष 2003 से 2005 के तीन वर्षों के दौरान एफएमएस समझौते की राशि बढ़कर $1380 लाख से भी अधिक हो गई.


अगर सरकार-से-सरकार को बिक्री का रूट भारत को अमेरिकी हथियारों की बिक्री का एक रास्ता रहा है, तो प्रत्यक्ष वाणिज्यिक बिक्री (डीसीएस) इसका एक अन्य रास्ता है. डीसीएस तरीके में भारत सरकार अमेरिकी सैनिक ठेकेदारों से सीधे हथियारों की ख़रीद करता है जिसे कुछ मामलों में अमेरिकी कांग्रेस को अनुमोदन करना होता है लेकिन वहां के विदेश मंत्रालय का अनुमोदन तो आवश्यक ही होता है. इसके तहत ठेकेदार को हथियार बेचने का लाइसेंस दिया जाता है या हथियारों की बिक्री का समझौता करने का अधिकार दिया जाता है.


ऐतिहासिक रूप से अमेरिकी हथियार ख़रीदने का यह बहुत ही जटिल तरीक़ा रहा है और भारतीय रक्षा खरीद प्रक्रिया का दोषपूर्ण होना इसका सबसे बड़ा कारण रहा है. पर इसके अलावा, भारत को उच्च तकनीकी क्षमता वाले हथियारों की बिक्री के बारे में अमेरिका की राजनीतिक प्रतिबद्धता का पता डीसीएस के वॉल्यूम को देखकर लगाया जा सकता है जिसकी उसने अनुमति दी है – वर्ष 2018 तक यह कुल $19.5 अरब रहा है.


वर्ष 2008 के बाद से भारत ने अभी तक खरीदा $6.6 अरब का अमेरिकी सैनिक साजो-सामान


वर्ष 2008 के बाद से भारत ने अभी तक $6.6 अरब मूल्य का अमेरिकी सैनिक साजो-सामान ख़रीदा है जिसमें विमान, इलेक्ट्रॉनिक्स और गैस टरबाइन इंजन शामिल हैं. ये सभी सामान अमेरिकी कंपनियों से सीधे ख़रीदे गए हैं.


भारतीय सेना के आधुनिकीकरण के बजट के बारे में अमेरिकी अनुमान के दावे को लेकर दो तरह की समस्याएं हैं. पहला, अमेरिका की ओर से सभी समझौते और अनुमोदन वास्तविक ख़रीद सौदे के रूप में परिवर्तित नहीं हो पाते और दूसरा, इनमें से कुछ जो वित्तीय प्रतिबद्धताओं और देनदारियों की दृष्टि से कई बजटों तक फैले होते हैं, समझौता होने के बाद इनकी डिलीवरी में अमूमन सालों लग जाते हैं.


इन्हें अलग तरीक़े से समझा जा सकता है- फ़र्ज़ कीजिए कि भारत को अमरीका से कल कोई आइटम X ख़रीदना है और मान लीजिए कि अमरीका ने इस बिक्री को हरी झंडी दिखा दी, तो कल और जिस दिन यह हथियार प्रणाली भारत पहुंचेगी उसके बीच काफ़ी समय लग जाता है. इसके अलावा, अमरीकी हथियारों की अनुमति के बारे में यह जानने के लिए छद्म वॉल्यूम्स का सहारा लिया जा सकता है कि अमरीका-भारत रक्षा व्यापार संबंध की गहराई क्या है.


इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अमरीका ने जिन हथियारों की आपूर्ति की है उनकी डॉलर में क़ीमत क्या है: 2008 और 2017 के बीच भारत को अमरीका से $2.8 अरब मूल्य का सैनिक साजो-सामान मिला. इस दौरान इन सामानों की डिलीवरी के बारे में दिलचस्प बात यह रही है कि एफएमएस रूट से सबसे ज़्यादा डिलीवरी प्राप्त हुई है जो डीसीएस रूट से 2.3 गुना से भी अधिक रहा है. यह आंकड़ा अधिकांश भारतीय रक्षा विश्लेषकों जो पता है उसके अनुरूप ही है: अभी तक अंतिम-प्रयोग को लेकर लचीलेपन के बावजूद डीसीएस रूट अमरीकी हथियारों की ख़रीद की दृष्टि से मध्यम दर्जे का साबित हुआ है.


अगर भारत ने रूस से लिया S-400 तो फाइटर प्लेन देने से हिचकेगा अमेरिका


भारत-अमेरिका रक्षा व्यापार संबंधों की दो कसौटियों पर परीक्षा होगी: भारत के जीओपॉलिटिकल वादा और अपनी तकनीक की रक्षा करने की अमेरिका की तीव्र इच्छा. यह पहले ही स्पष्ट हो चुका है कि अगर भारत रूसी एस-400 ट्रायम्फ विमान-भेदी प्रक्षेपास्त्र बैटरी की डिलीवरी स्वीकार कर लेता है तो अमेरिका (विशेषकर उसकी वायु सेना) भारत को अपना उन्नत युद्धक विमान देने से हिचकिचाएंगे. पर इसके साथ-साथ, भारतीय रणनीतिक समुदाय के एक वर्ग ने यह ग़ौर किया है कि अमेरिका अपनी ऐसी तकनीक भारत को बेचने में हिचक रहा है जिसकी उसे सबसे ज़्यादा ज़रूरत है ताकि वह अपने स्वदेशी रक्षा आधार को विकसित कर सके उदाहरण के लिए जेट का इंजन विकसित करने की योजना.